दुनिया का सबसे बड़ा सच यह है कि इंसान के लिए यह मेहमानखाना है, और यहाँ आये हर इक मेहमान के लिए लौटना उसका नसीब है. लकिन सबसे दुखद बात यह है कि हर इक यह सोचता है कि यह उसकी हमेशा-हमेश रहने की जगह है और वह सोचता है कि कोई उसे नहीं देख रहा है, इसलिए जो चाहे मनमानी कर ले. हालाँकि रात-दिन लोगो को अगले सफ़र पर जाते हुए देखता है, फिर भी आँख खुलती नहीं और जब जब खुलती है तब आँखे बंद होने का वक़्त अनकरीब आ पहुँचता है. ऐसे में सफ़र में साथ ले जाने के लिए उसके पास कोई साजो-सामान नहीं होता. भाई-अहबाब, यार-दोस्त, मालो-दौलत सुपुर्दे ख़ाक होने तक ही साथ निभाते हैं. और अच्छे अमल किये नहीं होते जो अगले सफ़र में साथ दे सकें.
बहरहाल, मुझे जगन्नाथ आज़ाद साहब की यह ग़ज़ल बहुत पसंद है, आपके भी पेशे-नज़र है:-
मुमकिन नहीं कि बज़्म-ए-तरब फिर सजा सकूँ
अब ये भी है बहुत कि तुम्हें याद आ सकूँ
ये क्या तिलिस्म है कि तेरी जलवा-गाह से
नज़दीक आ सकूँ न कहीं दूर जा सकूँ
ज़ौक़-ए-निगाह और बहारों के दरमियाँ
पर्दे गिरे हैं वो कि न जिनको उठा सकूँ
किस तरह कर सकोगे बहारों को मुतमइन
अहल-ए-चमन जो मैं भी चमन को मना सकूँ
तेरी हसीं फ़िज़ा में मेरे ऐ नए वतन
ऐसा भी है कोई जिसे अपना बना सकूँ
'आज़ाद' साज़-ए-दिल पे है रक़सां के ज़मज़मे
ख़ुद सुन सकूँ मगर न किसी को सुना सकूँ
तेरी हसीं फ़िज़ा में मेरे ऐ नए वतन
ReplyDeleteऐसा भी है कोई जिसे अपना बना सकूँ
वाह वाह हर शेर खुबसूरत दाद को मुहताज नहीं , बहुत खूब
आज़ाद साहब की इतनी उम्दा ग़ज़ल पढ़वाने के लिए आपका शुक्रिया.
ReplyDeleteबात भी बढ़िया और ग़ज़ल भी लाजवाब... वाह क्या बात है!
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